ऋषिकेश की स्वाभिमान रैली में युवाओं ने भरी हुंकार

दिनेश शास्त्री

अमर हिंदुस्तान

राजनीतिक रूप से शांत माहौल में रविवार को ऋषिकेश के आईडीपीएल मैदान से लेकर त्रिवेणी घाट तक हुए मार्च और बाद में जनसभा ने प्रदेश के लोगों के मन में उमड़ रहे प्रतिकार के भावों को स्वर दे दिए। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अर्से से ठहरी हुई झील में पत्थर उछाल कर मूल निवास और भू कानून स्वाभिमान रैली के जरिए युवा नेता मोहित डिमरी, लुसून टोड़रिया और उनकी टीम ने रविवार को तीर्थ नगरी ऋषिकेश में खासी हलचल मचा दी। उत्तराखंड में वर्ष 1950 से मूल निवास और सशक्त भू कानून लागू करने की मांग ने इस रैली के जरिए जोर पकड़ना शुरू कर दिया है। यहां के जल, जंगल, जमीन के बुनियादी सवालों को जिस तरीके से आज युवाओं ने एड्रेस किया वह लंबे समय तक लोगों को झकझोरते रहेंगे। इसी के साथ राज्य में नशे की बिक्री पर भी पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की मांग पर जोर दिया गया है। इन्हीं मांगों को लेकर आज ऋषिकेश के आईडीपीएल हॉकी मैदान में हजारों लोग जमा हुए। रैली में महिलाओं की संख्या अप्रत्याशित रूप से ज्यादा थी। उससे एक बार फिर रेखांकित हो गया कि प्रदेश में फिर 1994 का वो दौर शुरू होने वाला है जब हाथ में दरांती लेकर पहाड़ की महिलाएं उत्तराखंड आंदोलन में कूद पड़ी थी |आईडीपीएल के मैदान से करीब 12 किमी का मार्च करते हुए लोग जब पहली खेप में त्रिवेणी घाट पहुंचे तो एकबारगी लगा कि लोगों का हौसला सीमित ही है लेकिन कुछ ही देर में एक के बाद एक जत्थे त्रिवेणी घाट पहुंचे तो देखते ही देखते हजारों हजार लोग भीषण गर्मी के बावजूद हुंकार भरने लगे। सत्ता प्रतिष्ठान के लिए यह एक तरह से चेतावनी सी लगी कि अब उत्तराखंड के लोग बहकावे में आने वाले नहीं हैं। जो मुद्दे राज्य स्थापना के समय तय हो जाने चाहिए थे, वे अब सतह पर उभर गए हैं और ज्यादा दूर न जाएं, आगामी निकाय और पंचायत चुनाव के लिए आधारशिला बन गए हैं। अगर समय से पहले चुनाव न हुए तो 2027 के विधानसभा चुनाव में भी यह केंद्रीय विमर्श का विषय हो सकता है। कम से कम रविवार को प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से उमड़े लोगों ने ऋषिकेश से यही संदेश दिया है। युवा नेता मोहित डिमरी ने लोगों की दुखती नब्ज पर हाथ रखते हुए कहा कि क्या आपको मंजूर है कि हमारी जमीन पर बने एम्स में बाहरी लोगों को नौकरियां दी जा रही हैं और पहाड़ के नौजवान मुंह ताकते रह गए हैं। अंकिता हत्याकांड के सबब बने उस वीआईपी का खुलासा करने पर भी जोर दिया गया जिसके बारे में विधानसभा में मंत्री प्रेमचंद ने कहा था कि कोई वीआईपी नहीं है बल्कि वीआईपी रूम था। इसी मुद्दे को उठाते हुए मोहित ने शायराना अंदाज में कहा – अंकिता की हत्या का सबब बना वीआईपी है कौन? इस मुद्दे पर सीएम धामी क्यों हैं मौन? एक तरह से दफनाए जा चुके इस मुद्दे को पहाड़ की अस्मिता से जोड़ कर मोहित ने संदेश देने की कोशिश की है कि बहुत हो चुका, अब ज्यादा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। मोहित यहीं नहीं रुके, उसने हवा में मुट्ठी तान कर पूछा – मंत्री द्वारा सुरेंद्र नेगी की सरेराह पिटाई, शराब माफिया द्वारा योगेश डिमरी की पिटाई क्या मंजूर है? भीड़ से आवाज उभरी – अब अत्याचार नहीं सहेंगे। इन मुद्दों से वित्त मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल के लिए आज अपनी धरती पर ही एक तरह से बड़ी बड़ी चुनौती मिल गई है। राज्य सरकार द्वारा अभी हाल में भू कानून बनाने के वादे और इन तमाम मुद्दों को मोहित विमर्श के केंद्र में लाने में सफल रहे। हर उस मुद्दे पर लोग हाथ उठा कर नारे लगाते दिखे, जो उनके मानस को छू रहे थे। गौरतलब है कि सीएम की ओर से अभी हाल में कहा गया था कि अगले बजट सत्र में हमारी सरकार ही भू कानून लाएगी। सरकार अगर इतनी ही संजीदा है तो क्यों नहीं पुराने पाप धुलने के लिए ऑर्डिनेंस लाकर मुद्दे पर विराम नहीं लगा देती। वैसे राजनीतिक क्षेत्रों में दो तीन दिन से यह सवाल खूब तैर रहा है कि क्या सरकार केदारनाथ उपचुनाव और निकाय चुनाव का इंतजार हो रहा है? बजट सत्र में तो अभी बहुत समय बाकी है। भू कानून के लिए दो साल पहले सरकार ने कमेटी बनाई थी, उसकी रिपोर्ट फाइलों में कैद है, क्यों नहीं उसे लागू किया गया, उसके लिए बजट सत्र का इंतजार करने की जरूरत क्या है, जब विधायकों के वेतन भत्ते बढ़ाने के लिए गैरसैंण में सत्र बुलाया जा सकता है तो भू कानून तो उससे कहीं बड़ा मुद्दा है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि हाल में हुए गैरसैंण सत्र के बाद प्रदेश की जनता यही मानती है कि ढाई दिन के सत्र की एकमात्र उपलब्धि विधायकों को लाभान्वित करने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं था। उन्हें देश और विदेश में इलाज मिल जाए, यही प्रबंध करने के लिए सत्र हुआ था। अनुपूरक बजट और अन्य विधाई कार्य की औपचारिकता लोगों की समझ में नहीं आई है। ठेठ पारंपरिक वेशभूषा में दिखी महिलाएं : रैली की विशेषता यह रही कि ज्यादातर महिलाएं उत्तराखंड की पारंपरिक वेशभूषा में प्रदर्शन और नारेबाजी करती हुई दिखाई दीं। त्रिवेणी घाट तक निकली स्वाभिमान महारैली में अलग अलग समूह ने महिलाएं एक ही रंग की साड़ी अथवा परम्परागत पोशाक में दिखी। वहां त्रिवेणी घाट पर लोगों ने पवित्र गंगा जल हाथ में लेकर अपनी मांगों के संबंध में लड़ाई जारी रखने का संकल्प भी लिया। रैली में उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों के पहनावे और लोक संस्कृति के रंग भी खूब दिखे। स्वाभिमान महारैली में आई समाजसेवी कुसुम जोशी ने बातचीत के दौरान कहा कि जिन तीन मांगों को लेकर लगातार उत्तराखंड के लोग आवाज बुलंद कर रहे हैं, वो यहां के अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए नितांत जायज मांगे हैं, लेकिन सरकार उन पर ध्यान देने को तैयार नहीं है। उनका कहना था कि ये सवाल राज्य स्थापना के समय ही सुलझा लिए जाने थे लेकिन राष्ट्रीय दलों ने अपने एजेंडे के चलते इन बुनियादी सवालों को उलझाए रखा। इसी का नतीजा है कि प्रदेश की अस्मिता के लिए संवेदनशील युवा राज्य के विभिन्न शहरों में स्वाभिमान महारैली का आयोजन करते आ रहे हैं। एक और खास बात यह रही कि रैली जितनी अनुशासित थी, उतनी ही व्यवस्थित भी थी। लोग स्वेच्छा से इसमें शामिल हुए और अपने खर्च पर आए। संसाधन संपन्न राजनीतिक दल ऐसे आयोजन के लिए जितना पैसा झोंकते हैं, जितना प्रचार प्रसार पर खर्च करते हैं उसकी तुलना में बिना खर्च के मोहित जैसे युवाओं ने प्रदेश की जनता को एकसूत्र में जोड़ कर सत्ता प्रतिष्ठान को आईना दिखा दिया है। पत्रकारों के समूह में रैली के दौरान यह चर्चा थी कि बॉबी पंवार के बाद मोहित के रूप में प्रदेश को नया नेता मिल गया है जो जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम दिख रहा है। मूल निवास और भू कानून के मुख्य मुद्दे ने दूसरे दलों के नेताओं को भी इस धारा की ओर खींचा है। कांग्रेस के नगर अध्यक्ष की रैली में भागीदारी ने इसका साफ संकेत दिया। बीजेपी नेताओं की मजबूरी थी कि वे सरकार के विरुद्ध नहीं जा सकते, इस कारण वे दिखे नहीं किंतु मन ही मन उनका समर्थन जरूर इस आंदोलन को था। इस तरह रविवार को तीर्थनगरी ऋषिकेश में हुई स्वाभिमान रैली के बाद एक बात तो साफ हो गई कि युवाओं ने धामी सरकार को चेताने का काम कर दिया है। उनका कहना था कि इस जनसैलाब को देख कर राज्य सरकार की चेत जाना चाहिए। एक संदेश यह भी इस रैली ने दिया कि लोग अब सपनों में नहीं जीना चाहते। बांग्ला को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने और बंगालियों को आरक्षण की पैरवी किए जाने की भी निंदा की गई। मोहित ने तो यहां तक कहा कि गढ़वाली, कुमाऊनी और जौनसारी की उपेक्षा की जा रही है और बांग्ला भाषा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की पैरवी किए जाने से सत्ता में बैठे लोगों का चरित्र उजागर हो गया है। रैली में शामिल मनोज गुसाईं ने कहा कि वर्ष 1950 से मूल निवास देने की मांग लंबे समय से की जा रही है। इसके अलावा उत्तराखंड के जल-जमीन-जंगलों को बचाने के लिए सशक्त भू कानून बनाने की मांग भी लगातार जारी है। राज्य में लगातार बढ़ रही नशे के प्रवृत्ति से युवा वर्ग बर्बाद हो रहा है। सरकार से इन तीनों मांगों को पूरा करने के लिए उसका ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है। स्वाभिमान महारैली को लेकर आईडीपीएल से त्रिवेणी घाट तक चप्पे चप्पे पर भारी संख्या में पुलिस मौजूद रही। रैली में मोहित डिमरी और लुसून टोडरिया के अलावा शिव प्रसाद सेमवाल, राकेश सिंह नेगी, मनोज गोसाई, कुसुम जोशी, संजय सिंसवाल, राजेंद्र गैरोला, रामकृष्ण पोखरियाल, उत्तम असवल, करण सिंह पवार समेत अनेक लोग मौजूद थे। रैली की विशेषता यह थी कि यह पूरी तरह गैर राजनीतिक थी और एक तरह से स्वत: स्फूर्त भी। आईडीपीएल के मैदान में जिस तरह से सरकारी कर्मचारियों की उपस्थिति दिखी, उसने उत्तराखंड आंदोलन की याद ताजा कर दी। उस समय भी सरकारी कर्मचारियों ने दफ्तर छोड़ कर आंदोलन में भागीदारी की थी और आज भी कुछ हद तक वही दृश्य उभरने लगा है। समझा जा सकता है अपने अपने कारणों से कर्मचारियों में सरकार के प्रति नाराजगी है और आज उन्होंने उसे जाहिर कर दिया है।

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