कैसा दिखता है आज का गोकुल, कैसे हैं गोकुलवासी और कैसे मनाते हैं यहां जन्माष्टमी। यह सब सोचकर ही मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही है।
मथुरा से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर है गोकुल। यहां पहुंचने पर ऐसा लग रहा है कि जैसे हर किसी के कदम गोकुल की ओर बढ़ रहे हैं। सूरज की तपिश कुछ कम हुई है। ऐसे में पैदल चलना थोड़ा आसान लग रहा है।
जिस तरफ देखो लोगों के सिर पर बैग-बस्ते लदे हैं। पीले कपड़ों में वह गली-गली राधे-राधे कहते हुए बस मंजिल की ओर बढ़ते जा रहे हैं।
जन्माष्टमी वैसे तो पूरे देश में धूमधाम से मनाई जाती है, लेकिन गोकुल का नजारा थोड़ा अलग है। लगभग 5000 साल पहले द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने अपने बचपन के 11 साल एक महीना इसी जगह पर बिताए थे।
कहते हैं कि श्री कृष्ण ने ठुमक-ठुमक कर चलना यहीं सीखा था। माखन मिश्री भी यहीं चुराया और गाय भी यहीं चराई थी। गोकुल के ही घाट पर उन्होंने बाल लीलाएं की हैं।
यहां पहुंचकर मैंने महसूस किया कि धर्म ग्रंथों में उल्लेख अनुसार कृष्ण ने जिस जीवन को यहां जिया या जो रवायतें शुरू की थीं, उसे गोकुलवासियों ने कभी गुजरे जमाने का नहीं होने दिया। बदलते जमाने के साथ सब कुछ आज भी वैसा है जैसे तब हुआ करता था।
गोकुल पहुंचने पर मुझे कहीं भी तारकोल या कंक्रीट की सड़क नहीं दिखाई दे रही है। यहां आज भी पत्थर की सड़कें हैं। सबसे पहले मुझे यहां कदम्ब का वो पेड़ दिखाई दिया जहां बैठकर कान्हा मुरली बजाया करते थे।
पतितपावन कुंड के पार मधुबन जंगल है। यहीं कृष्ण गाय चराने जाया करते थे। गोकुलधाम की गलियां संकरी हैं। एक बार में एक ही व्यक्ति निकल सकता है।
इन्हें कुंज गली कहते हैं। कहते हैं कि भगवान कृष्ण इन्हीं गलियों से माखन चुरा कर भाग जाते थे और गोपियां इन्हीं गलियों में अपना दूध-माखन बेचने के लिए आया करती थीं।
मैं देख रही हूं कि यहां हर गली में लस्सी और मक्खन की दुकान है। कहते हैं कि यहां की लस्सी और मक्खन का स्वाद कहीं और नहीं।
अब भला गोकुल आकर लस्सी-मक्खन न चखी जाए ऐसा हो नहीं सकता। मैंने भी ट्राई किया, वाकई ऐसा स्वाद कि महीनों जुबान पर रहे।
गली-गली से होते हुए मैं तो गुम ही हो गई। सैकड़ों साल पुराने घर दिखाई दे रहे हैं। मकान ज्यादा आधुनिक नहीं। विकास से दूर हैं। कई घरों पर तो ताला जड़ा है।
मैं पूरी तरह से कन्फ्यूज हो जाती हूं। मेरी दुविधा शायद एक नेक इंसान ने समझ ली। दूर से चिल्लाकर उसने कहा- आप किसी स्थानीय आदमी को साथ ले लीजिए, नहीं तो कुंज गलियों में खो जाएंगीं।
सच ही कह रहा है वो। गलियों का ऐसा जाल है यहां कि पहली दफा जाने पर रास्ता भटकना स्वाभाविक है। चलते-चलते मैं एक अंधेरी गली में पहुंच जाती हूं। जहां लिखा हुआ है कि गली-गली में शोर है, कान्हा माखन चोर है। गोकुल की सबसे खूबसूरत गली शायद यही है।
इसे माखन चोर गली कहते हैं। वैसे यहां की हर गली के अलग-अलग नाम है, जैसे नंद गली, माखन चोर गली, गोपी गली आदि।
मुझे बताया गया कि कुछ साल पहले तक यहां की सड़कें कच्ची थीं। योगी आदित्यनाथ सरकार ने गलियां पक्की करवाई हैं और इसे तीर्थ घोषित किया।
गोकुल, बरसाणा, वृंदावन, गोवर्धन, मथुरा इन पांच गांवों की एक कमेटी बनाई गई है। इस कमेटी के चेयरमैन ही जन्माष्टमी समेत राधा-कृष्ण संबंधित किसी भी समारोह का आयोजन मीटिंग करके तय करते हैं।
इसी बीच मैंने देखा कि एक व्यक्ति गाय को चारा खिला रहा है। ध्यान से देखा तो दिखा कि यहां हर घर के सामने चारा रखा है। वैसे तो यहां ज्यादातर घरों में एक या दो गाय हैं। जिनके घर में नहीं है वह घर के बाहर चारा रखते हैं।
कृष्ण ने जो रिश्ता गाय से रखा, उसे गोकुलवासियों ने कभी बासी नहीं होने दिया। गाय यहां हर घर की सदस्य है।
गलियों से होते हुए मैं नंदमहल पहुंचती हूं। गोकुल का मुख्य मंदिर नंदमहल मंदिर ही है। इसके पास से यमुना बहती है। यह वही नंदमहल है जहां उफनती यमुना को पार कर वासुदेव कृष्ण को एक टोकरी में डालकर नंदमहल छोड़ आए थे। वापसी में योगमाया, यानी यशोदा की बेटी को अपने साथ ले गए थे।
नंद महल में कृष्ण के बचपन का झूला मौजूद है। इसे झुलाने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। कहते हैं कि यहां हंसते हुए हाहाहाहा करके कोई मन्नत मांगो तो 11 महीने के अंदर वह पूरी होती है।
माना गया है कि बाल रूप में कृष्ण सभी की झोली भरते हैं। मंदिर के मुख्य पुजारी भगवान दास कहते हैं कि इस जगह से कृष्ण किशोर अवस्था के बाद ही गए थे। इसलिए यहां ज्यादातर उनके बाल रूप की पूजा होती है।
पुजारी भगवान दास कहते हैं, ‘नंदमंदिर में एक अंगवस्त्र दिया जाता है। उस अंगवस्त्र को पाने के लिए भी लोग दूर-दूर से आते हैं। उसे अपने पूजाघर या तिजोरी में रखा जाता है। किसी खास काम से जा रहे हों तो भी उसे साथ ले जाया जाता है।
इस मंदिर का मुख्य प्रसाद माखन और मिश्री है। प्रसाद लेने के बाद मंदिर की एक खिड़की से नीचे झांककर मैंने देखा। नीचे यमुना बह रही है।
मंदिर में एक छोटा सा कच्चा स्थान भी छोड़ा गया है ताकि लोग उस वक्त की माटी को नतमस्तक कर सकें। मंदिर में नंदबाबा, यशोदा, बलराम, बलराम की पत्नी, कृष्ण और योगमाया की भी मूर्तियां हैं। मंदिर के ठीक सामने ऊखल बंधन है।
इन्हीं कुंज गलियों के बीच एक चौराहा आता है जिसे नंद चौराहा कहते हैं। नंद चौराहे पर आम दिनों में भी पांव धरने की जगह नहीं होती है, लेकिन आज तो देश यहां उमड़ा हुआ है। आज यहां लाला की छीछी बंटेगी। लाला की छीछी के एक छींटे के लिए लोग लालायित हैं। तरस रहे हैं।
छीछी आखिर क्या है? मैं यह जानना चाहती थी। गोकुल के चेयरमैन संजय मिश्रा बताते हैं, ‘एक क्विंटल दूध, एक क्विंटल दही, एक क्विंटल मक्खन, केसर, हल्दी और कई क्विंटल फल इन सबको मिलाकर छीछी तैयार होती है। इसे बनाने में बड़ी-बड़ी हांडियों का इस्तेमाल होता है। इसी छीछी को श्रद्धालुओं पर छिड़का जाता है।
मैं देख रही हूं कि इसकी एक बूंद को अपने ऊपर गिरने के लिए तरस रहे हैं लोग। लोग एक-दूसरे के ऊपर उमड़े हुए हैं। गोकुल में इसे नंदोत्सव कहते हैं।
पूरे साल लोग इस नंदोत्सव का इंतजार करते हैं। यहां से लोग अंगवस्त्र और कामधेनु गाय की मूर्ति भी ले जा रहे हैं।
हाथी, घोड़े और पालकी भी होते हैं। नंदचौक के रास चबूतरे पर पहुंचकर लाला की छीछी लुटाई जाती है। जिसमें मंदिर के मुख्य पंडित और ब्रज के सभी पांच गांवों के चेयरमैन होते हैं। जन्माष्टमी से एक दिन पहले यहां कृष्ण भगवान की छठी मनाई जाती है।
हालांकि, दुनिया में हर जगह छठी बच्चे के पैदा होने के बाद मनाई जाती है, लेकिन केवल गोकुल में कान्हा के जन्म से पहले ही छठी मनती है। उसकी वजह ये है कि कान्हा के पैदा होने की खुशी में मां यशोदा एक साल तक उनकी छठी मनाना ही भूल गई थीं।
साल भर गोकुल में उत्सव मनते रहे थे। इसलिए छठी को कान्हा के पैदा होने से पहले मनाया जाता है। इस दिन मंदिर में महिलाएं संगीत करती हैं।
पूड़ी, हलवा, सब्जी का भोग लगता है। हर श्रद्धालु को यही प्रसाद दिया जाता है। इस मंदिर के अध्यक्ष मथुरा के जिला जज हैं। सरकार का एक आदमी मंदिर में विराजमान रहता है।
लाला की छीछी बंटने के बाद श्रद्धालुओं में सोना, चांदी, हीरे, खिलौने, फल, बच्चों के कपड़े, मिठाइयां लुटाई जाती हैं। जिसके हाथ जो लगे वो उसकी किस्मत।
ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि माना जाता है कि नंदबाबा के यहां जब कृष्ण ने जन्म लिया था तो वह खुशी में पागल हो गए थे। वह गोकुल के बड़े रईसों में से एक थे जिनके पास नौ लाख गाय थीं।
खुशी में उन्होंने सोना, चांदी, हीरे, फल, खिलौने, कपड़े और मिठाइयां लुटाई थीं। नदोत्सव आज 5000 साल बाद भी गोकुल में मनाया जाता है।
संजय दीक्षित यह भी बताते हैं कि आज भी गोकुल के घरों में प्याज और लहसुन का प्रयोग नहीं किया जाता है। होली के मौके पर छड़ीमार होली खेली जाती है, क्योंकि जब कान्हा छोटे थे तो यशोदा से होली खेलने की जिद कर रहे थे तो यशोदा ने उन्हें छड़ी से पीटा था। गोकुल की होली को छड़ीमार होली कहते हैं।
ऐसी बहुत-सी रवायतें हैं जो केवल गोकुल में ही निभाई जाती हैं। गोकुल के वयोवृद्ध पंडित द्वारका प्रसाद बताते हैं कि आज भी गोकुल की लड़की की बरसाना में शादी नहीं की जाती है।
माना जाता है कि कृष्ण बरसाना से राधा को लेकर आए थे। बरसाना के लोग आज भी गोकुलवासियों के सामने हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि उनकी बेटी गोकुल चली जाए।
जब बरसाना की बेटियां गोकुल में दुल्हन बनकर आती हैं तो सब मिलकर जश्न मनाते हैं। गोकुल की लड़कियों की शादियां वृंदावन, गोवर्धन, राधाकुंड, पतिपुराण आदि स्थानों पर होती हैं। इसके अलावा गोकुल की लड़कियों की शादी नंदगांव में भी नहीं होती है।